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परम् पूज्य पापाजी ने 'कर्म के महत्व' के बारे में बताते हुए कहा कि–
"परमात्मा के सतत चिंतन एवम् अनासक्त भाव से किये गए कर्मो द्वारा मन को नियंत्रित किया जाता है।निष्काम कर्म के आचरण से मनुष्य का अन्तःकरण नितांत निर्मल हो जाता है और साक्षात् भगवत्प्राप्ति हेतु अनुभूति ज्ञान का पवित्र स्थल बन जाता है।ऐसा कर्म मनुष्य को आसक्त नही करता है न वह उसमे संलिप्त होता है।कर्तापन कर्म को दूषित करता है।मै और मेरा से अहंकार झलकता है।कार्य की सफलता का श्रेय स्वयम लेना तथा असफलता का दोष औरो पर मढ़ना अहंकार है।यह
कर्म बन्धन का कारण बनता है और यही भविष्य में सौभाग्य एवम् दुर्भाग्य का सूचक है।अतः छोटे से लेकर बड़े सभी कार्यो को ईश्वर को अर्पित करना चाहिए।निष्काम कर्म में दोष नही होता।साधक को कर्म का त्याग नही करना है वरन कर्मफल की इच्छा का त्याग करना चाहिए।यह कार्य कठिन लगता है किन्तु निरन्तर अभ्यास द्वारा आचरण में उतारा जा सकता है,तब धीरे धीरे साधक के अंदर पात्रता विकसित होती है।"








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