















साधक को सन्तोषी प्रवृत्ति का होना चाहिए।जो कुछ मिल जाये उसी में सन्तोष करना और दूसरो के दोषो को देखने से बचना चाहिए।
यहाँ यह स्पष्ट है कि जीवन में भौतिक रूप से जो मिला है उसमे सन्तोष करना।लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि मनुष्य उन्नति के लिए प्रयास न करे।
बहुत से लोग अकर्मण्यता से इसे जोड़ देते है वह गलत है।आप यथाशक्ति प्रयास करे फिर जो कुछ मिले उसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करे।दूसरो के दोषो को न देखकर अपने दोषो को देखकर उनको दूर करने का प्रयास करे।
जैसा कि परम् पूज्य गुरुदेव चच्चा जी महाराज ने कहा है कि–
"प्रत्येक व्यक्ति को कुछ उपयोगी कार्य नित्यप्रति अवश्य करते रहना चाहिए।बेकार रहने से मनुष्य दूसरो के अवगुण और दोषो को देखने का अभ्यासी हो जाता है।
ऐसे मनुष्य को प्रायश्चित का साधन करते हुए अपने कल्याण तथा उद्धार के लिये नित्यप्रति श्री भगवान की उपासना तथा सत्संग अवश्य करते रहना चाहिए।"


















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