🌻"प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माही,
मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाही।
गुरु पितु मातु न जानउँ काहू,
कहऊँ सुभाउ नाथ पति आहू।
🌻"हे प्राणनाथ!आपके बिना जगत में मुझे कही कुछ भी सुखदायी नही।
"हे नाथ!स्वभाव से ही कहता हूँ,आप विश्वास करे,मै आपको छोड़कर गुरु, पिता ,माता किसी को नही जानता।"
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🌻"उपर्युक्त चौपाइयों में सीताजी एवम् लक्ष्मण जी की व्याकुलता का वर्णन है ,इसी सम्बन्ध में परम् पूज्य पापाजी शिष्य की साधना कैसी होनी चाहिए ,उसके अंदर कैसी व्याकुलता होनी चाहिए ,इसको समझाते हुए कहते थे कि शिष्य के जीवन का एक ही धर्म ,एक ही व्रत और एक ही नियम है कि उसका अपने गुरु के चरणों में अनन्य प्रेम ,श्रद्धा-विश्वास एवम् समर्पण होना चाहिए।जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री के लिये पति ही उसका परमेश्वर है उसके जीवन का एक ही धर्म है पति की सेवा।यही सम्बंध गुरु एवम् शिष्य का और भगवान तथा भक्त का होता है।
🌻सन्त कबीरदासजी ने भी यही कहा है "हरि मोर पिऊ मै हरि की बहुरिया"।
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