






















अब इस में फर्क इतना रहता है कि पहले तरीके से उस संस्कार का भोग नहीं हुआ और वह समय पाकर फिर भी आ सकता है ।
और जो दूसरा तरीका है उसमें संस्कार का भोग हो जाता है और फिर उसके वापस आने का कोई सवाल नहीं रहता है ।
क्योंकि संस्कार जब तक भोगे न जाएंगे तब तक पूरे ना होंगे।
वाकई जो संत हैं वह संस्कार को भुगता देते हैं। उसके साथ-साथ वह उसमें बर्दाश्त की ताकत देते जाते हैं। जिससे कि उस भोगने वाले को कोई परेशानी नहीं होती है और वह उसका उसको आसानी से भोग लेता है।"




















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