
















सभी धर्म कही किसी एक स्थान पर आकर मिलते है तो वह ध्यान है।ध्यान से हम अपने चित्त के कुसंस्कारो को निकालते है।हमारे मन में यह विश्वास होना चाहिए कि हमारा अन्तर्मन हमारे गुरु में समर्पित है।हमारा कुछ भी नही है जब यह भाव आने लगेगा तो द्वेष,अहम,आसक्ति,तृष्णा का जो आवरण हमारे ऊपर चढ़ा हुआ है वह उतरने लगेगा।
साधक को यह एहसास होने लगेगा कि साक्षात् सद्गुरु ही उसके अंदर विराजमान हो रहे है।यह ध्यान करते करते साधक समर्पण भाव द्वारा पवित्र बनता चला जाता है साथ ही उसका मन उसके गुरुदेव में स्थिर हो जाता है।"



















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