तुम जैसे भी
हो, जिस हाल
में हो,
मेरे निमंत्रण
को स्वीकार करो
और चले आओ
।
मैं प्रतिपल
तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ,
साहस करो और
मेरे स्पर्श को
छू लो,
अन्तर की ‘तम’
अवस्था में समा
जाओ, मिलन के
सुख को अंगीकार
करो ।
तो आओ
। स्वागत है
। द्वार अब
भी खुले हैं
कुटिया के,
स्वागत को तत्पर
हूँ, स्वयं प्रतीक्षारत
हूँ । आ जाओ, बस
एक बार,
बस एक
बार । आंखें
उत्सुक हैं, अपलक
चितवन हैं, खोज
तुम्हारी
अब भी
जारी है ।
एक बार, बस
एक बार आ
जाओ । जैसे
भी हो,
एक बार,
बस एक बार
।
अभी तक
तुम गीता और
वेद पढ़ते रहे,
यज्ञ और हवन
करते रहे,
और जो
दुर्गति होनी थी,
होती रही ।
तुम्हें फिर से
अज्ञानी हो जाने
की हिम्मत जुटानी
होगी ।
अंतर में
संग्रहित ज्ञान से मुक्ति
पानी होगी ।
पूरी तरह
शून्य में जाना
होगा,
जिन विश्वासों
से चिपके रहे
हो, निजात उनसे
भी पानी होगी
।
मैं सारी
मानवता को, विश्व
के इतिहास को,
उसमें निहित जो
जीवन है,
उस आभास
को, सभी में
प्रेम और प्रेम
के सच का
संचार कर दूंगा
।
यदि यही
क्रांति है, तो
आओ, मैं तुम्हें
भय हीन कर
दूंगा ।
आ जाओ,
बस एक बार,
बस एक बार,
बस एक बार
।
-फकीर रामचन्द ।
(श्री लालाजी महाराज, फतेहगढ़)
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