मेरे परम पूज्य
पिता श्री भगवती
शरण दास जी
ने इस "श्री सन्त सद्गुरु भवानीशंकर चालीसा" की
रचना मेरे लिए
तब की थी
जब मैं नाना
प्रकार के दैहिक
एवम् मानसिक संतापों
से त्रस्त थो।
मेरी नियुक्ति सन्
1977 में श्री चित्रगुप्त
महाविद्यालय में प्रवक्ता
पद पर हुई,
इसके पूर्व छात्र-जीवन में
मैं कभी भी
माता-पिता की
छत्रछाया से दूर
नहीं रहा था
और न ही
किसी प्रकार की
चिन्ता का अनुभव
हुआ था, नौकरी
लगने के बाद
पहली बार घर-परिवार से अलग
रहना पड़ा, महाविद्यालय
में अलग प्रकार
की चुनौतियाँ थीं,
मैं त्रस्त और
अस्वस्थ रहने लगा,
मैं अपना त्रास
पिताश्री को बदलाता
था, मैं नौकरी
छोड़ कर भागना
चाहता था, तब
पूज्य पिताश्री ने
मुझे यह चालीसा
भेजा, साथ ही
पत्र में यह
लिखा - "इस चालीसा
का पूर्ण श्रद्धा
के साथ नियमित
पाठ करो, श्री
चच्चा जी महाराज
साक्षात् ब्रह्म स्वरूप हैं,
वे हर पल
अपनी गुप्त शक्तियों
से अपने भक्तों
की रक्षा करते
हैं, वे तुम्हारी
भी रक्षा कर
रहे हैं, उनका
स्मरण करते रहो
।"
पिताश्री की
आज्ञा मानते हुये
मैंने श्री चच्चा
जी के चालीसा
को पाठ प्रारम्भ
कर दिया शनैः-शनैः कब
स्थितियाँ अनुकूल हो गईं
पता ही नहीं
चला, विरोधियों के
स्वर बंद हो
गये, मेरे क्लेश
भी समाप्त हो
गये । तब
से निरंतर श्री
चच्चा जी महाराज
के इस चालीसा
का पाठ पूर्ण
श्रद्धा के साथ
कर रहा हूँ,
और उनकी ही
कृपा से समाज
में अत्यंत सम्मान
प्राप्त कर रहा
हूँ ।
पूज्य पिताश्री कहा
करते थे कि
संतों के चमत्कार
सबको नहीं दिखते,
भक्तों को उनका
अनुभव होता है,
मैं भक्त नहीं
हूँ पूजा के
नाम पर सिर्फ
चच्चा जी के
चालीसा का ही
पाठ करता हूँ,
पर मुझे अनेक
बार अनुभव हुआ
है कि श्री
चच्चा जी महाराज
मुझे भयानक झंझावातों
से सुरक्षित निकाल
लाए हैं ।
अनेक शारीरिक व्याधियाँ
अभी भी पीडि़त
करती हैं पर
वह पीड़ा मन
को व्यथित नहीं
करती, मेरे प्रारब्ध
मुझे ही काटने
हैं, पर चच्चा
जी की कृपा
से मन प्रफुल्ल
रहता है ।
जब मैं किसी
विषम परिस्थिति में
होता हूँ, मन
ही मन इस
चालीसा का पाठ
करके अपनी व्यथा
श्री चच्चा जी
से कह देता
हूँ, ऐसा कभी
नहीं हुआ कि
मेरी व्यथा का
निराकरण न हुआ
हो ।
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