"बंगला अजब बना दरवेश, जा में नारायण परवेश
पाँच तत्व की ईंट बनायी, तीन गुणों का गारा
छत्तीसों की छत डालकर, चिन गया चिनने हारा
बंगला अजब बना दरवेश, जा में नारायण परवेश"
हमारा अपना शरीर लगता है जाना पहचाना क्या हमने कभी इस शरीर के बारे में सोचा है ? इसमें कितने अनमोल भण्डार भरे पड़े हैं ? इस अंधेरी और गहरी गुफा में कितने असली और चमकते हुए रत्न, हीरे-मोती भरे पड़े हैं । बहुत आश्चर्य की बात है कि जिस घर में हम वर्षों से रह रहे हैं उसमें अन्दर कभी झांकने की चेष्टा ही नहीं की । कबीर साहब के अनुसार हमारा शरीर केवल हाड़-माँस का पुतला नहीं है । इसमें सुन्दर बाग-बगीचे हैं और उनका माली, वह परमेश्वर भी इसके अन्दर है । सातों समुद्र, लाखों तारे और उनको बनाने वाला भी इसके अन्दर है । कितना घोर अन्धेरा है कि हमारा मालिक हमारे अन्दर ही है और हम उसे देखते ही नहीं हैं । उस अजन्मे-अमर परमपिता से मिलने के लिए किसी पूर्ण सन्त-सतगुरु का सत्संग सुनना और उसकी शरण में जाना आवश्यक है क्योंकि वही हमें अन्दर के मार्ग का भेद दे सकता है ।
हमारा शरीर चन्दन के उस वन की भांति है जिसमें हमें आध्यात्मिक उपलब्धियों के रूप में करोड़ों रूपये प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु अज्ञानतावश हम इस वन की लकड़ी को पाँच विकारों की अग्नि में जलाकर उसका कोयला बनाते जा रहे हैं, जैसे कि यह कहानी कहती है -
"एक निर्धन वृद्ध वन में रहता था तथा लकड़ी काटकर, कोयला बनाकर बेचता था और जीवन निर्वाह करता था । एक बार वन में भटके हुए राजा की प्राण रक्षा करने पर राजा ने चन्दन का बाग इनाम में दिया । जैसा कि विदित है, चन्दन के वृक्ष मूल्यवान होते हैं और इत्र बनाने के काम आते हैं, परन्तु अज्ञानतावश वह वृद्ध अपने जीवन यापन के लिए चन्दन की लकड़ी के भी कोयले बनाकर कौडि़यों के भाव बेचता रहा । काफी समय बाद राजा उधर से यह सोचकर गुजरा कि वह वृद्ध धनवान हो गया होगा क्योंकि सारे पेड़ काटे जा चुके थे, परन्तु यह जानकर कि उस वृद्ध की स्थिति पहले जैसी दयनीय है, आश्चर्यचकित हुआ । वस्तुस्थिति जानने पर राजा ने पूछा कि लकड़ी का कोई टुकड़ा बचा है, वृद्ध ने दो फीट बचा हुआ अन्तिम टुकड़ा दिखाया । राजा ने कहा इसे ऐसा ही बाजार में बेंच आये । उस दिन वृद्ध को उस छोटे से टुकड़े के बहुत पैसे मिले । वृद्ध ने राजा से विनती की कि उसे दूसरा वन उपहार में दे दिया जाये क्योंकि उसे अब इसका मूल्य पता चल गया है । परन्तु राजा ने उत्तर दिया ऐसा उपहार जीवन में केवल एक ही बार प्राप्त होता है ।"
इसी प्रकार मनुष्य शरीर के वास्तविक मूल्य का पता भी मृत्यु के समय ही लगता है । इसीलिए सन्तजन कहते हैं कि जीवन की शुरूआत में ही इस अमूल्य निधि के महत्व को समझ लिया जाये तो बाद में पछताना नहीं पड़ता । संतों का मार्ग इतना आसान है कि बालक, युवक और वृद्ध नर, नारी सभी बिना किसी कठिनाई के इस पर चल सकते हैं । इसमें न धर्म बदलना है, न घर बार छोड़ना है, न किसी कर्मकांड अथवा रीति रिवाज का सहारा लेना पड़ता है, केवल प्रभु भक्ति के लिये समय देना पड़ता है । प्रभु से प्रेम कर लेने से ही वह मंजिल सामने नजर आने लगती है, परन्तु हम दुनियावी बातों में अपना समय ज्यादा गुजार देते हैं और दुखी होते हैं ।
श्री जे0 कृष्णमूर्ति कहते हैं, हजारों सालों से मनुष्य दुख की समस्या से जूझता आया है । फिर भी इसका समाधान नहीं कर पाया और धीरे-धीरे मन ने यह स्वीकार कर लिया कि दुख भी जीवन का ही अंश है । श्री कृष्णमूर्ति आगे कहते हैं कि दुख को यू ही स्वीकार कर लेना न सिर्फ एक मूर्खता है बल्कि मन को कुन्द बना लेना भी है । ऐसा करना मन को संवेदनशून्य, क्रूर और छिछला बना देता है जिससे जीवन बहुत आडम्बर युक्त हो जाता है । स्वयं पर तरस खाने की अपनी प्रवृत्ति को आप कितना ही सही व औचित्यपूर्ण ठहरायें, इसके दोषों को ढंक दें परन्तु आप दुख से मुक्ति नहीं पा सकते । इससे मुक्ति पाने के लिये ऊर्जा यानि कि ध्यान अति आवश्यक है ।
इसलिये मनरूपी घोड़े पर लगाम लगाने के लिये संतों का सत्संग जरूरी है । गुरूनानक देव जी हर उपदेश में कहते हैं कि - मन को बाहर जाने से रोको और नाम (परमात्मा अथवा गुरु) के साथ जोड़ो । जो जीव पूर्ण गुरु की शरण में आकर उससे प्रीति करते हैं और दिये गये नाम का लगातार अभ्यास करते हैं । वे प्रभु को प्राप्त हो जाते हैं । जैसा कि कबीर साहब कहते हैं -
"पारस में और संत में, बड़ो अंतरो जान
वह लोह कंचन करे, वह कर ले आप समान"
प्रभु की असीम कृपा से हमें मानव जन्म मिला है और केवल इसी शरीर से प्रभु की प्राप्ति हो सकती है । इसलिये जिन्हें परिपूर्ण सतगुरू मिले हैं वो बहुत भाग्यशाली हैं और जिन्हें अब तक नहीं मिले वो परमात्मा से प्रार्थना करें कि उन्हें भी समर्थ सतगुरू मिले जिससे मानव जन्म का उद्देश्य पूर्ण हो ।
"कहे मछन्दर सुन भाई गोरख जो यह बंगला जावे ।
इस बंगले का जावन हारा बहुरि जन्म नहीं आवे ।
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