परम पूज्य गुरुदेव चच्चाजी
पूर्ण परब्रह्म के
रूप में कर्मयोगी
थे । जिस
प्रकार भगवान राम ने
संसार की मर्यादा
रखते हुए अपनी
लीला की थी,
उसी भाँति पूज्य
चच्चा जी भी
गृहस्थ आश्रम के नैत्यिक,
सामाजिक तथा आध्यात्मिक
कर्मों का नियमित
रूप से पालन
करते हुए, निरन्तर
अपने स्वरूप में
स्थित रहते थे
। पूज्य चच्चाजी
की साधना का
मार्ग "कर्मयोग" था, इसके
द्वारा ही वह
ब्रह्म प्राप्ति का साधन
बताते थे ।
मनुष्य संसार में आता
है और चला
जाता है ।
इस बात का
किसी को पता
नहीं रहता कि
कौन कहाँ से
आता है और
कहाँ चला जाता
है । मनुष्य
योनि ही ऐसी
है जो कि
योगाभ्यास द्वारा इसकी खोज
करके अपने जीवन
को सार्थक बनाती
है । संसार
में जितने प्राणी
या भूतमात्र हैं
उन सबमें एक
चैतन्य शक्ति व्याप्त है
जिसके द्वारा वह
जीवित है ।
शरीर से उस
चैतन्य शक्ति के विलग
हो जाने पर
प्राणी निर्जीव हो जाता
है । वह
शक्ति समान रूप
से सब भूतमात्र
में व्याप्त रहती
है । उस
शक्ति को हम
चाहे आत्मा कहें
चाहे परमात्मा कहें
एक ही बात
है । इस
तथ्य को चाहे
कोई नास्तिक हो
चाहे आस्तिक सभी
को मानना ही
पड़ेगा । वह
शक्ति क्या है
और कहाँ है
इसको समझना ही
सच्चा ज्ञान है
।
पूज्य चच्चाजी
ने इस प्रसंग
में एक कहानी
बताई थी - एक
बार एक आदमी
ने एक महात्मा
से यह प्रश्न
किया कि महाराज
हम किसकी उपासना
करें । महात्मा
ने सोचा कि
यह अभी भ्रम
में पड़ा हुआ
है अपना कोई
निश्चय नहीं कर
सका है ।
इसलिये इसे अभी
कुछ उपदेश दिया
जायगा तो सम्भव
है कि इसके
भ्रमपूर्ण अन्तःकरण में उसकी
आस्था न हो
। इसलिए ऐसा
करना चाहिए कि
वह स्वयं धीरे
धीरे एक सिद्धान्त
पर आ जाय
। ऐसा विचार
कर महात्मा ने
उत्तर दिया कि
जिसको तुम सबसे
बड़ा समझो उसकी
ही उपासना करो
। वह मनुष्य
यह सुनकर अपने
घर गया और
विचार किया कि
शिवजी ही सबसे
बड़े मालूम होते
हैं उन्होंने विष
पी लिया और
संसार के संहार
करने की शक्ति
रखते हैं इसलिए
उन्हीं की उपासना करनी चाहिए
। यह निश्चय
करके वह शिवजी
की उपासना करने
लगा । एक
दिन एक चूहा
भगवान की मूर्ति
पर चढ़ कर
नैवेद्य खाने लगा,
उस मनुष्य ने
सोचा कि शंकर
जी से बड़े
तो यह चूहे
जी ही मालूम
पड़ते हैं जो
उनके सिर पर
बैठे थे, यह
विचार कर उसने
शिवजी की उपासना
छोड़ दी और
चूहे जी को
पकड़ कर उनकी
पूजा करने लगा
। एक दिन
एक बिल्ली उस
चूहे पर झपटी
तो चूहा भागा,
उस मनुष्य ने
विचार किया कि
चूहे से बड़ी
तो बिल्ली ही
है तो वह
बिल्ली की पूजा
करने लगा, एक
दिन दूधकी हांडी
में बिल्ली दूध
पी रही थी
कि उसकी स्त्री
ने देखा, स्त्री
बिल्ली के पीछे
दौड़ी तो बिल्ली
भागी, उस मनुष्य
ने विचार किया
कि बिल्ली से
बड़ी तो मेरी
स्त्री ही है
। वह अपनी
स्त्री की पूजा
करने लगा ।
एक दिन उसमें
और स्त्री में
झगड़ा हुआ वह
स्त्री को पीटने
दौड़ा तो स्त्री
भागी, उसने विचार
किया कि स्त्री
से बड़ा तो
मैं ही हूं
। इस प्रकार
समस्त बाह्य जगत
में सबसे बड़े
की खोज करते
करते उसने अन्त
में अपने को
ही सबसे बड़ा
पाया । अब
अपनी उपासना किस
प्रकार की जाये
यह जानने के
लिए वह उन
महात्मा जी के
पास गया और
अपनी पूरी उपासना
का समाचार सुनाकर
कहा कि अब
आप मुझे अपनी
उपासना का उपाय
बतायें । महात्मा
ने सोचा कि
अब इसका चित्त
एक सिद्धान्त पर
स्थिर हो गया
है इसलिए यह
उपदेश का पात्र
हो गया ।
महात्मा ने कहा
कि अभी तक
तुमने वाह्य जगत
में खोज की
है और निश्चय
किया है कि
तुम ही सबसे
बड़े हो, अब
तुम यह बतलाओ
कि तुम कौन
हो ? उसने कहा
महाराज, बैठा तो
हूं आपके सामने
।
महात्मा ने कहा
...... हमारे सामने तो तुम
नहीं बैठे तुम्हारा
शरीर बैठा है
। यह तुम्हारा
सिर है, यह
तुम्हारा हाथ है,
यह तुम्हारा पेट
है, यह तुम्हारा
पैर है ।
इस प्रकार तुम्हारा
विभिन्न अंग हमारे
नेत्र देख रहे
हैं । जिस
प्रकार तुम्हारा महान, तुम्हारा
कोट, तुम्हारे वस्त्र
तुमसे जुदा हैं,
उसी प्रकार हाथ,
पाँव, सिर, पेट
आदि अंग प्रत्यंग
तुमसे भिन्न हैं
। ये तुम्हारे
अंग हैं यह
तुम्हारा शरीर है
पर तुम शरीर
नहीं हो ।
अब विचार कर
बतलाओ कि तुम
कौन हो ।
वह मौन रह
गया, कहा: श्रीमहाराज
मुझे तो मालूम
नहीं कि मैं
कौन हूं ।
महात्मा ने उपनिषद
की एक कथा
सुनाई कि एक
बार शरीर की
विभिन्न कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों
में विवाद हुआ
। प्रत्येक इन्द्रियां
अपने को बड़ा
कहने लगी ।
ब्रह्मा जी पंच
चुने गये ।
पंच ने कहा
कि सब इन्द्रियाँ
एक एक करके
शरीर छोड़ो ।
एक-एक
करके हाथ पैर
आदि सभी इन्द्रियों
ने शरीर को
छोड़ा परन्तु शरीर
बराबर जीवित रहा,
फिर एक-एक
करके नेत्र, कर्ण
आदि ज्ञानेन्द्रियों ने
शरीर को छोड़ा
तो शरीर फिर
भी जीवित रहा
। अन्त में
प्राण ने शरीर
को छोड़ना शुरू
किया । जैसे
प्राण निकला, सभी
इन्द्रियां बेकार होने लगी
और शरीर ढीला
होने लगा, तुरन्त
सब इन्द्रियों ने
मान लिया कि
प्राण ही शरीर
में सबसे बड़ा
है । प्राण
की सत्ता से
ही शरीर में
शक्ति का संचार
होता है ।
महात्मा ने कहा
कि विचार करो
कि क्या प्राण
ही तुम हो,
प्राण तुम्हारा है
पर तुम नहीं
हो । जिस
प्रकार शरीर के
अंग तुमसे भिन्न
हैं उसी प्रकार
तुम्हारा प्राण भी तुमसे
भिन्न है, प्राण
भी तुम नहीं
हो, इसी प्रकार
मन और बुद्धि
भी तुम नहीं
हो, अर्थात न
तुम यह स्थूल
शरीर हो और
न सूक्ष्म शरीर
हो और न
तुम कारण शरीर
हो क्योंकि वह
तो अज्ञान अविद्या
है । वह
तुम्हारा शरीर हो
ही नहीं सकता
क्योंकि तुम तो
जागृत स्वप्न और
सुषुप्ति सबके दृष्ट
साक्षी रूप, चैतन्यस्वरूप,
स्थूल, सूक्ष्म और कारण
इन तीनों शरीरों
से परे इनके
अधिष्ठान रूप हो
।
वास्तव में जो
तुम हो उसे
आत्मा कहते हैं
।उसके स्वरूप का
वर्णन नहीं किया
जा सकता। वह
त्रिगुणातीत अर्थात सत्व, रज
और तम तीनों
गुणों से परे
होने के कारण
वर्णनातीत है ।
वर्णन न होने
वाला है इसीलिए
उसके स्वरूप का
बोध कराने के
लिए यह कहा
जाता है कि
आत्मा न शरीर
है, न इन्द्रिय
है, न प्राण
है, न मन
है और न
बुद्धि है ।
इसका बोध योगसाधना
द्वारा ही होता
है, जिसका अनुभव
साधक लोग स्वयं
करते हैं ।
साधारणतया भूतमात्र उस शक्ति
को अपनी बाह्य
दृष्टि से नहीं
देख पाता है।
बिरले ही ऐसे
हैं जो कि
अन्तरदृष्टि से योगाभ्यास
द्वारा उस शक्ति
का अनुभव द्वारा
साक्षात्कार करते हैं
। वह शक्ति
हमारे अंदर ही
है ।
पूज्य चच्चा जी
ने बतलाया कि
योगाभ्यास दो प्रकार
के होते हैं
। एक कर्मसन्यास
दूसरा कर्मयोग ।
इन दोनों में
से प्रत्येक प्राणी
के लिए ‘कर्म
योग’ सुगम तथा
सरल मार्ग है
। जिस प्रकार
किसी नदी या
समुद्र को पार
करने के लिए
किसी नाव में
सभी बच्चे, बूढ़े,
स्त्रियाँ, पुरूष आदि बैठकर
पार करते हैं
उसी भांति कर्मयोग
द्वारा सभी ज्ञानी,
अज्ञानी योगाभ्यास करके देह
धारण करते हुए
भी आत्मस्वरूप में
तदू्रप रहते हैं
। गीता में
भगवान कृष्ण ने
कहा है कि
योगाभ्यास द्वारा ऐसे कर्मयोगियों
में और मुझ
में कोई अन्तर
नहीं होता, वह
मेरे साकार रूप
में ही संसार
में प्राणियों के
परोपकार व हित
के लिए देह
धारण किए रहते
हैं ।
महाराजा जनक
दरबार में बैठे
थे । अप्सराओं
का नाच हो
रहा था ।
उसी समय नारद
जी वहाँ पहुँचे
। जनक जी
ने उनका आदर
सत्कार किया और
पूछा- महाराज कैसे
कष्ट किया ? मेरे
योग्य सेवा बताएँ
। नारद जी
ने कहा- मुझे
विष्णु जी ने
आपके पास "योग" विद्या सीखने को भेजा
है । नारद
जी के रहने,
ठहरने, खाने पीने
आदि का उत्तम
प्रबन्ध कर दिया
गया तथा नारद
जी उनके महल
में रहने लगे
। एक दिन
राजा ने आज्ञा
दी कि जनकपुरी
नगरी को अच्छी
प्रकार सजाया जावे ।
नगरी सजा दी
गई । महाराजा
जनक ने नारद
जी को बुलाया
और कहा: नारद
जी आज मैंने
आपके स्वागत में
जनकपुरी सजायी है मैं
चाहता हूँ कि
आप नगरी का
भ्रमण करें और
देखें कि नगरी
कैसी सजी हुई
है । राजा
जनक ने नारद
जी से आगे
कहा: आपको एक
काम और करना
है । उन्होंने
नारद जी को
एक कटोरा दिया
जिसमें ऊपर तक
तेल भरा हुआ
था । राजा
जनक ने दो
सिपाहियों को तलवारों
के सहित बुलाया
। फिर नारद
जी से बोले-
नारदजी मैं राजा
की हैसियत से
आपको आज्ञा देता
हूं कि आप
मेरी नगरी में
भ्रमण करें और
देखें कि नगरी
किस तरह सजी
हुई है परन्तु
इस बात का
ध्यान रहे कि
आपकी हथेली पर
जो तेल से
भरा हुआ कटोरा
है उसमें से
एक बूंद भी
नीचे गिरने न
पावे । आपकी
बगल में मेरे
यह दो सिपाही
नंगी तलवार लिए
साथ चलेंगे ।
यदि तेल की
एक भी बूंद नीचे गिरी
तो यह आपका
सिर तलवार द्वारा
धड़ से अलग
कर देंगे ।
अब आप जाइये
। नारद जी
बड़ी मुसीबत में
पड़ गए ।
राजाज्ञा थी मानना
ही पड़ा ।
नारद जी सारे
शहर का भ्रमण
कर आये उनका
मन व दृष्टि
कटोरे पर ही
लगी रही ताकि
तेल की बूँद
न गिरने पावे
। लौटने पर
राजा जनक ने
कहा: नारद जी
आप पूरी नगरी
घूम आए हैं
कृपया बतायें आपने
क्या देखा, नगरी
कैसी सजी थी,
राजद्वार पर जो
अप्सराओं का नाच
हो रहा था
वह आपको कैसा
लगा ? नारद जी
ने उत्तर दिया:
महाराज मेरा मन
व दृष्टि तो
हाथ पर रक्खे
हुए कटोरे की
तरफ ही था
क्योंकि मुझे भय
था कि उसकी
एक भी बूंद
गिरने पर मेरा
सिर काट दिया
जायेगा इसलिए मैं तो
कुछ भी नहीं
देख पाया ।
मेरा ध्यान कटोरे
पर ही रहा
। महाराजा जनक
ने कहा - नारद
जी यही "योग" है । जिस
प्रकार आप सारी
नगरी घूम आये
और आपका ध्यान
कटोरे पर रहा
उसी प्रकार संसार
के सारे कार्य
करते हुए भी
आपका मन ईश्वर
की ओर लगा
रहे यही "योग" है ।
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