Like on FB

Sunday, 17 January 2016

"बाबा कहानी सुनाओ" - केशव श्रीवास्तव , ग्वालियर

                              मेरे बाबा पूज्य चच्चाजी महाराज जब ब्रह्मलीन हुए उस समय मैं केवल पांच वर्ष का था । उनके साथ बीते हुए समय की स्मृतियाँ आज भी मुझे सुखद और आनंद का अनुभव कराती रहती है । मुझे आज भी अच्छी तरह याद है की जब चच्चाजी सुबह घूमने जाते थे तो मैं पहले से ही उठकर उनके साथ घूमने जाने के लिए तैयार रहता था । चच्चा जी के साथ आदरणीय बुआजी भी जाती थीं । आगे आगे चच्चाजी छड़ी लेकर चलते थे और मैं बुआजी का हाथ पकड़कर पैदल पैदल चलता था । चच्चाजी अक्सर स्टेशन की ओर जाते थे । स्टेशन के पास एक मज़ार बनी ही थी । उसके चबूतरे पे चच्चाजी बैठ जाया करते थे । मैं व बुआजी भी वहीँ बैठ जाते थे । मुझे वहां बैठने में बहुत अच्छा लगता था । इसके अलावा मेरी दिनचर्या में सुबह व् शाम का भोजन  करना भी उनके साथ शामिल था । जब कभी खेल में मग्न होने के कारण उनके पास नहीं पहुँच पाता था , तो मुझे चच्चाजी बुलवाते थे और बड़े प्रेम से मुझे अपने साथ खाना खिलते थे । दोपहर में जब वो फलों का जूस पीते थे , तो एक -दो घूंठ मुझे अवश्य पिला देते थे ।

                             मैं अक्सर उन्ही के पास दोपहर में सो जाया करता था । मुझे कहानी सुनने का बड़ा शौक था । मैं प्रायः उनसे बाल सुलह आग्रह किया करता था "बाबा कहानी सुनाओ" और चच्चाजी मुझे छोटी छोटी कहानियां सुनाते रहते थे, चच्चाजी के पास जिज्ञासुओं और सत्संगियों का आना जाना लगा रहता था । उनसे बातें करते थे और उन्हें समझाते रहते थे । मैं सुनता रहता था । लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पाता था । लेकिन एक बार की घटना आज भी मुझे अच्छी तरह याद है । घटना याद रहने का कारण यही है की उस घटना के अंतर्गत उन्होंने एक बड़ी रोचक कहानी पास में बैठे हुए सत्संगी भाइयों को सुनाई थी । यह कहानी एक दृष्टान्त है -


                             एक जंगल में एक महात्मा जी रहते थे । वहां पर उन्होंने एक सुन्दर-सा आश्रम बना रखा था । जहाँ पर विभिन्न प्रकार के फल वाले वृक्ष और एक कुआं भी था । तरह तरह के पक्षी आकर वहां बैठते थे और उन पक्षियों से वह आश्रम गुंजायमान रहता था । एक दिन एक बहेलिया वहां से गुजरा । वहां पर उसने तोतों का झुण्ड देखा । तोते पकड़ने के लिये उसने कुँए पर घिरनी लगाई , इस घिरनी में उसने डोरी लपेट दी और उस डोरी में विभिन्न प्रकार के आकर्षक फल थोड़ी - थोड़ी दूरी पर बाँध दिये । जब तोते फल खाने के लिए डोरी पर बैठते तो उनके बोझ से घिरनी घूमती और डोरी कुँए के पानी की ओर खिसकने लगती । इस प्रकार तोते अपने आप को पानी के पास देखते और पानी में गिरने के डर के मारे डोरी नहीं छोड़ते थे । इसका फायदा उठाकर बहेलिया उन निरीह तोतों को पकड़ लेता था । जब महात्मा जी ने यह देखा तो उन्होंने बहेलिए को पक्षियों को पकड़ने से रोका । इस पर बहेलिया बोला - महाराज जी अगर यह धंधा हम बंद कर देंगे तो अपने बच्चों को किस प्रकार पालेंगे । इस पर महात्मा जी ने कहा की अगर तुम इन तोतों को नहीं छोड़ते हो तो मुझे एक तोता दे दो । बहेलिये ने ख़ुशी ख़ुशी एक तोता दे दिया । बहेलिये के चले जाने के बाद महात्मा जी ने उस तोते को सिखाना चालू कर दिया । 

                           उसी प्रकार घिरनी की डोरी में फल बांध देते थे और तोते को डोरी में बैठा देते थे । डोरी बोझ के कारण तोते सहित नीचे जाती थी । तोता नीचे से उड़कर ऊपर कुएं के मुंडेर पर आ बैठता था । उन्होंने उसको यह वाक्य भी सिखा दिया था की - "तुम रस्सी को पकडे हो , रस्सी तुमको नहीं पकड़े , रस्सी को छोड़ दो और ऊपर उड़कर आ जाओ ।" कुछ  दिनों में तोता पूरी तरह प्रशिक्षित हो गया और डोरी पर बैठता ,नीचे जाता और यह वाक्य चिल्लाता हुआ मुंडेर पर आ बैठता । कुछ दिनों के बाद वही बहेलिया फिर आया, उसने तोते पकड़ने के लिए वही युक्ति फिर लगाई । महात्माजी ने यह सोचकर की वह तोता अन्य तोतों को रस्सी छोड़कर ऊपर आने का मार्ग दिखायेगा , अन्य तोतों के साथ छोड़ दिया । रस्सी में लगे फल खाने के लिए बौठे सारे तोतों के साथ यह तोता भी कुँए के अंदर चला गया । महात्माजी द्वाया प्रशिक्षित तोता , "तुम रस्सी को पकडे हो , रस्सी तुमको नहीं पकड़े , रस्सी को छोड़ दो और ऊपर उड़कर आ जाओ " यह चिल्लाता हुआ कुँए के मुंडेर पे बैठ गया । बाकी सब तोतों ने रस्सी नहीं छोड़ी लेकिन सभी तोते यही वाकय दोहराते रहे । उन तोतों को डर था की रस्सी छोड़ने पर कुएं में गिर कर मर जायेंगे । 

                         उस समय तो मैं यह कहानी बड़े ध्यान से सुनता रहा लेकिन मैं कुछ समझ नहीं सका । लेकिन आज मैं जब इस कहानी के बारे में सोचता हूँ तो मुझे इस कहानी के अंदर छिपी हुई यथार्थता का बोध होता है । हम सभी इस संसार की नश्वरता को जानते हैं फिर भी उसी सांसारिक मायाजाल में फंसे रहते हैं । दूसरों को उन रस्सी पकडे तोतों की तरह उपदेश देते रहते हैं लेकिन खुद मायामोह रूपी रस्सी को पकडे रहते हैं । इस अज्ञानता के अंदर से निकलने के लिए हमें महात्माजी रुपी सद्गुरु की तलाश की इच्छा जागृत करनी होगी और उन्ही की कृपा से भवसागर को पार कर पाएंगे । 

                         जब मैं कुछ समझने योग्य हुआ उसके पहले ही पूज्य चच्चाजी ब्रह्मलीन हो चुके थे । उनके सम्बन्ध में और उनके जीवन दर्शन के सम्बन्ध में मुझे अपने पिताजी से समय - समय पर जो कुछ जानकारी मिली है उसका मैं तो यही निष्कर्ष निकाल पाया हूँ कि पूज्य चच्चाजी एक महान कर्मयोगी थे । उन्होंने हमेशा कर्म को प्रधानता दी थी । उनके जीवन दर्शन में राजा जनक के विदेह वाली स्थिति व् जीवन मुक्त लक्ष्य की प्राप्ति, साधना का मुख्य उद्देश्य रहा । संसार में रहते हुए संसार से अलग रहने की स्थिति प्राप्त करना ही हमारे जीवन का मुख्य लक्ष्य होना चाहिये । पूज्य चच्चाजी चमत्कारों में विश्वास नहीं करते थे । 



                         परिवार में सबके प्रति अपना कर्तव्य भलीभांति  चाहिए , उन्होंने अपने जीवन में इसका इतना सफल अभिनय किया था की एक महासंसारी व्यक्ति भी नहीं कर सकता । वह कहते थे कि सुख कि स्थिति में सुख का सफल अभिनय करना चाहिए और दुःख के समय दुःख का अभिनय करना चाहिए लेकिन मन के ऊपर दोनों स्थितियों में समभाव का रहना आवश्यक है । सुख के समय मन में आनंद का अनुभव न हो व् दुःख के समय मन को दुःख का अनुभव न हो यही पूज्य चच्चाजी का जीवन-दर्शन था । 

                         लेकिन यह जीवन-दर्शन न मेरे समझने की चीज़ है न समझाने की । मुझे तो "बाबा कहानी सुनाओ " में ही सारा जीवन दर्शन दिखाई देता है । आज भी मेरा बाल मन आग्रह में उमड़-घुमड़ आता है और मैं कुछ रूठी मुद्रा में बाबा को झकझोरता हूँ । बाबा-बाबा कहानी सुनाओ और कान लगाए उत्सुक बना सुनता रहता हूँ की बाबा कहानी सुना रहे हैं । बस यह आनंद ही मेरी जीवन धरोहर है । मैं कहता रहूँ बाबा कहानी सुनाओ और बाबा एक न एक रोचक कहानी सुनाते रहे । 

(साभार - श्री चच्चा जी जन्म शताब्दी स्मारिका १९९१ ) 

No comments:

Post a Comment