
















यदि किसी प्रकार सद्गुरु मिल भी जाये,तो मनुष्य बिना अधिकार के उनको पहचान भी नही सकता।यदि किसी के कहने सुनने से वह सद्गुरु की शरणागत प्राप्त भी कर लेता है तो पात्र न होने के कारण वह हृदय का सम्बन्ध नही बना पाता।
अब भी जहाँ सत्संग आश्रम है वहाँ पर शिष्यगण बड़ी तादाद में कारण व अकारणवश पहुँचते है परन्तु अपनी मनमानी इच्छाओ की पूर्ति न होने पर उनको न विश्वास होता हैं न उनकी श्रद्धा होती है।सद्गुरु एक ऐसा तत्व है कि यदि आसानी से मिल भी जाये तो भी मन नही ठहरता है,जैसाकि कहा है-

तुलसी ऐसी वस्तु पर ग्राहक नहि ठहराय।।"


















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