संत- इस शब्द
को सुनने पर
एक ऐसे इन्सान
का अक्स उभरता
है जो धर्म,
जाति, ऊँच-नीच
सभी से जुदा
होता है, वह
सिर्फ और सिर्फ
परम पिता परमात्मा
से जुड़ा होता
है ।
जैसा कि गुरू नानक देव जी महाराज फरमाते हैं -
जैसा कि गुरू नानक देव जी महाराज फरमाते हैं -
"सब घट
मेरा सांईयां, सूनी
सेज ना कोय
।
बलिहारी वा घट
की, जा घट
परगट होय ।।"
अर्थात् परमात्मा तो
सभी में है,
परंतु उस इन्सान
को शत-शत
नमन है जिसमें
वह प्रकट रूप
में है ।
इस संसार
में जितने भी
संत (समर्थ परिपूर्ण
संत) हुए हैं,
उन्होंने लोगों को उस
रास्ते पर चलने
को कहा है
जिसकी मंजिल परमपिता
परमात्मा है ।
इन सभी महापुरुषों
का मानना है
कि जप, तप,
पूजा, व्रत इत्यादि
से शुरूआत करके
आगे चलकर आत्मशुद्धि
पर ही बल
देना चाहिए ।
जैसे कोई बच्चा
नर्सरी क्लास में एडमिशन
ले और उम्र
भर उसी क्लास
में पढ़ता रहे
तो क्या कहलायेगा
। इसी प्रकार
जीवन भर मूर्ति
पूजा, व्रत इत्यादि
में ही उलझे
रहे तो आत्म
उन्नति कैसे होगी
?
प्रभु का स्मरण
अर्थात् ध्यान अति आवश्यक
है । जितना
अधिक समय हम
भजन व ध्यान
में गुजारते हैं,
उतना ही हमारा
मन शुद्ध होता
जाता है ।
माला फेरने, व्रत,
उपवास से अहंकार
चाहे बढ़ जाये,
प्राप्त कुछ नहीं
होता । हमारे
पवित्र ग्रंथ जिन महापुरूषों
द्वारा लिखे गये
हैं वो उनका
अपना अनुभव था
। इन ग्रंथों
का अध्ययन करने
से हमें रास्तों
का पता तो
चल जाता है
परंतु कदम हमें
ही उठाना होगा।
ग्रंथों का सिर्फ
पठन-पाठन करने
से हमारी स्थिति
उस चण्डूल पक्षी
की तरह होगी
जो तोते की
भांति जो भी
सुनता है उसकी
नकल करने लगता
है, परन्तु अनुभव
कुछ नहीं है
।
श्री तुलसी
साहब (आगरा) का
कथन है -
"चार अठारह नौ पढ़े,
षट पढ़ खोआ
मूल
सुरत शब्द चीन्हे
बिना, ज्यों पंछी
चण्डूल"
यदि हम
यह सोचें कि
शास्त्रों के शब्दों
को याद कर
दोहराने से परमात्मा
को जान जायेंगे,
भ्रम है ।
शास्त्र कंठस्थ कर लेने
से परमात्मा की
तरफ एक कदम
भी नहीं उठता
बल्कि उठते हुए
कदम भी रूक
जाते हैं ।
श्रीकृष्ण, श्री महावीर
स्वामी, जीसस क्राइस्ट,
श्री गौतम बुद्ध
इत्यादि ने जो
शब्द हम तक
पहुँचाए हैं वो
अपने अनुभव द्वारा
ही पहुँचाए हैं
।
परमात्मा को पाने
के लिए जीवित
सद्गुरू का होना
अति आवश्यक है
। वह एक Power House की
तरह होता है
जो कि Supreme Power House [God],
से करेण्ट लेकर
हम तक विद्युतधारा
पहुँचाता है जिससे
हम भी Charge
होकर उस रास्ते
पर चलकर उस Supreme Soul से
जुड़ जायें ।
इस प्रक्रिया में
शिष्य का पूरा
समर्पण आवश्यक है ।
परम पूज्य चच्चाजी
महाराज कहते हैं
कि "आध्यात्मिक विद्या
गुरू गम्य है
इसे सिर्फ पुस्तकों
से नहीं सीखा
जा सकता ।" श्री कबीर साहब
और हजरत बहादुदीन
साहब ने यही
उपदेश दिया कि
कुछ ना करो
बस गुरू से
मोहब्बत का नाता
जोड़ लो ।
परम संत
डाॅ. चतुर्भुज सहाय
जी ने अपनी
पुस्तक "साधना
के अनुभव" में
लिखा है कि
कुछ लोग कहते
हैं कि जब
समय आवेगा और
भगवान की दया
होगी तो स्वयं
ही बुला लेंगे
। यह आत्म
प्रवंचना और मूर्खता
की बात है
। संसार के
सारे कर्म हम
अपनी मर्जी और
अहं बुद्धि से
करते हैं और
भजन करने के
लिए यह बहाना
ढूँढ़ते हैं । वर्ष भर
मनाये हमने तीज
और त्यौहार फिर भी
ना बदले हमारे
आचरण और व्यवहार
।
सभी संतों
का यही मत
है कि जो
समय हमारा गुरू
व परमात्मा के
ख्याल में गुजरे
वही सार्थक है,
बाकि हर सांस
बेकार है ।
इस संसार में
सिर्फ परम पिता
परमात्मा ही हैं
जो Judgemental नहीं
होता, वो हमारी
अनगिनत कमियों और पापों
के साथ हमें
स्वीकारता है और
प्रेम करता है,
वरना इस दुनिया
के जितने भी
रिश्ते हैं वो
हमारे ऊपरी और
दिखावटी व्यवहार पर बनते
और बिगड़ते रहते
हैं । अतः ये परम सत्य
है कि सतगुरू
द्वारा दिखाये गये मार्ग
पर चलकर ही
हम अपनी असली
मंजिल तक पहुँच
सकते हैं, क्योंकि
जीवन की सरिता
प्रभु के सागर
तक पहुँचे इसी
में मनुष्य का
जन्म सफल है
।
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