प्रार्थना आत्म-सत्ता
को परमात्म-सत्ता
से जोड़ने का
सशक्त माध्यम है
। वस्तुतः प्रार्थना
व्यक्ति द्वारा इष्ट से
किया जाने वाला
एक प्रकार का
संवाद है जिसके
माध्यम से व्यक्ति
अपने इष्ट, अपने
आराध्य से तादात्म्य
स्थापित करता है
। यह संवाद
मौन से भी
हो सकता है
और वाणी से
भी । ऐसा
माना जाता है
कि जब कोई
व्यक्ति भाव भरे
अन्तःकरण से, आर्त
स्वर से उस
सर्वशक्तिमान परमपिता परमेश्वर को
सच्ची श्रद्धा व
विश्वास से पुकारता
है तो वह
(परमात्मा) उसकी प्रार्थना
अवश्य सुनता है
। जिस प्रकार
शरीर की आवश्यकता
भोजन व जल
है जिसे पाकर
शरीर पुष्ट होता
है, उसी प्रकार
आत्मा का भोजन
प्रार्थना है जिसे
पाकर आत्मा पुष्ट
होती है ।
उस पर पड़े
हुए माया रूपी
मल नष्ट होते
हैं । प्रार्थना
मन को स्वच्छ
करती है तथा
हमारे अन्तःकरण को
पवित्र करती है
। प्रार्थना हृदय
के कपाट खोलती
है । प्रायः
सभी धर्मों की
इष्टोपासना की पद्धतियों
में प्रार्थना को
प्रमुख स्थान दिया गया
है । सभी
धर्मों के महान
संतों, महात्माओं एवं साधकों
ने प्रार्थना की
आवश्यकता तथा उसके
महत्व को खुले
हृदय से स्वीकारा
है ।
महात्मा
गांधी कहा करते
थे कि - "प्रार्थना
मेरा प्राण है,
जीवन है ।
मैं भोजन छोड़
सकता हूँ, पानी
छोड़ सकता हूँ,
संसार की सारी
चीजें छोड़ सकता
हूँ, किन्तु प्रार्थना
नहीं छोड़ सकता
। प्रार्थना करने
से मैं अपने
अंदर एक सुख-शांति, शक्ति और
संपूर्णता का अनुभव
करता हूँ ।
जिस दिन प्रार्थना
में बिलंब हो
जाता है या
किसी कारणवश नहीं
कर पाता हूँ,
वह दिन मेरे
लिए सबसे खराब
दिन होता है
।"
इसलिए जीवन
को पवित्र, प्रखर,
सुखमय, शांतिमय एवं पूर्ण
बनाने के लिये
हमें प्रार्थना नियमित
रूप से तथा
निर्धारित समय पर
अनिवार्यतः करना चाहिये
। प्रार्थना से
हमारा आत्म विश्वास,
मनोबल व आत्मबल
बढ़ता है ।
अब यह
प्रश्न उठता है
कि प्रार्थना वास्तव
में क्या है
? प्रार्थना वास्तव में चित्त
की समग्र भावनाओं
को मन के
केन्द्र में एकत्र
कर चित्त को
दृढ़ करने का
अभ्यास है ।
जब मनुष्य जीवन
के झंझावातों, व्यतिक्रमों,
परेशानियों, दुःखों व प्रपंचों
से क्लांत हो
जाता है, उसे
कोई आश्रय दृष्टिगोचर
नहीं होता तो
वह शक्ति और
साहस के एक
कल्पित आदर्श की स्थापना
करते हुए आश्रय
तथा सहायक की
खोज करते हुए,
अपने आन्तरिक जगत
में प्रवेश करता
है । व्यक्ति
की आत्मा में,
उसके अन्तःकरण में परमात्मा की अमिट
शक्ति, अद्भुत सामथ्र्य, अतुलित
बल की प्रतिमा
निवास करती है
। आत्मा को
परमात्मा का स्वरूप
भी कहा गया
है । व्यक्ति
में हम वस्तुतः
इसी आंतरिक शक्ति
केन्द्र की ओर
उन्मुख होते हैं
तथा उसे जाग्रत करते हैं
। मन की
यही आन्तरिक गुप्त
सामथ्र्य शक्ति ही व्यक्ति
में नवीन ऊर्जा,
आशा व बल
का संचार करती
है । यहीं
से व्यक्ति के
मन में सकारात्मक
सोच, शांतिदायक विचारधाराएँ
प्रस्फुटिक होती हैं
जो व्यक्ति को
अभय और सामथ्र्यवान
बनाती हैं ।
वस्तुतः प्रार्थना की यही
स्पष्ट व्याख्या है ।
प्रार्थना का संबंध
मानव की परम
पुनीत आत्मा से
है । आत्मा
अनंत शक्तिमान, सर्वगुण
सम्पन्न निर्विकार व र्निलेप
है । इसमें
पवित्र शक्ति का अक्षय
खजाना भरा पड़ा
है । मन
जो शरीर के
अन्य अंगों-उपांगों
की अपेक्षा अधिक
शक्तिशाली है, इसके
समीप निवास करता
है । जिस
समय मन की
समस्त शक्तियाँ आत्मविश्वास
से आंतरिक केंद्र
पर एकाग्र होती
है तब इस
पर आत्मा का
प्रतिबिम्ब पड़ता है जो
मन को अद्भुत
सामथ्र्य से भर
देती है ।
इसे ही दैवीय
प्रेरणा कहते हैं
। प्रार्थना आंतरिक
दैवीय प्रेरणा प्राप्त
करने का ही
नाम है ।
इससे ही व्यक्ति
परिमार्जित तथा सकारात्मकता
की ओर परिवर्तित
होता है ।
प्रार्थना करते समय
प्रथमतः एकाग्रता की आवश्यकता
है । जितनी
अधिक हमारी एकाग्रता
होगी, उतने ही
अधिक अपने इष्ट
से जुड़ सकेंगे
तथा तादात्म्य स्थापित
कर सकेंगे ।
प्रार्थना करते समय
हमारे मन में
संशय, अविश्वास की
विरोधी भावनाएं न उठें,
इस बात का
ध्यान हमें प्रार्थना
करते समय रखना
है । इसके
लिये यह आवश्यक
है कि हम
प्रार्थना करते समय
यह महसूस करें
कि हमारे इष्ट,
हमारे आराध्य हमारे
सामने हैं तथा
हमारी प्रार्थना सुन
रहे हैं ।
इष्ट में तन्मयता
ही हमारी प्रार्थना
की सार्थकता की
कुंजी है ।
प्रार्थना करते समय
हमारे मन में
इष्ट के प्रति
असीम श्रद्धा व
अटूट आत्म विश्वास
होना चाहिये ।
इष्ट की शक्ति,
उसकी सामथ्र्य, उसकी
कृपा के प्रति
हमारे मन में
जितना अधिक विश्वास
होगा, उतनी ही हमारी
प्रार्थना, सफल होगी
। प्रार्थना में
हमें इष्ट के
प्रति विनम्रता का
भाव रखते हुए
अहं छोड़कर ही
इष्ट के सामने
जाना चाहिये ।
प्रार्थना करते समय
हमें इष्ट के
प्रति पूर्ण समर्पण
तथा शरणागत का
भाव रखना होगा
। इस प्रकार
प्रार्थना करते समय
इष्ट के प्रति
एकाग्रता, ध्यान की सघनता,
इष्ट के प्रति
श्रद्धा व विश्वास
की बलवती भावना
तथा इष्ट के
प्रति पूर्ण समर्पण
व शरणागति का
सघन भाव हमें
रखना होगा तभी
हमारी प्रार्थना पूर्ण
एवं सार्थक होगी
।
प्रार्थना में हम
अपने इष्ट से
क्या माँगे ? क्या
कहें ? यह प्रश्न
प्रायः हमारे सामने आता
है । प्रार्थना
करते समय यह
देखा जाता है
कि अधिकतर लोग
अपनी व्यक्तिगत समस्याओं
को रखते हैं
। यह भी
ठीक है लेकिन
केवल यही ठीक
नहीं है ।
चूँकि इष्ट हमारे
सामने हैं, वह
हमारा है और
हम उसके हैं,
प्रार्थना करते समय
यह भाव हमारा
होना चाहिये ।
अतः व्यक्तिगत समस्याओं
को इष्ट के
सामने रखना कोई
बुरा तो नहीं
है फिर भी
इष्ट ने केवल
हमें शरीर, बल,
बुद्धि, विवेक ही नहीं
हमंे सच्ची सामथ्र्य
भी दी है
। अतः ईश्वर
की दी हुई
इस अमूल्य निधि
का प्रयोग कर
हमें अपने पुरूषार्थ
द्वारा व्यक्तिगत समस्याओं का
समाधान करना चाहिये
।
प्रार्थना कई प्रयोजन
से की जाती
है । प्रार्थना
समष्टि के कल्याणार्थ
भी की जाती
है । यह
व्यक्तिगत रूप से
तथा सामूहिक रूप
से भी की
जाती है ।
विश्व को युद्ध,
बीमारी, प्राकृतिक प्रकोप इत्यादि
से बचाने के
लिये विश्व कल्याण
के लिये भी
हम व्यक्तिशः अथवा
सामूहिक रूप से
प्रार्थना करते हैं
। राष्ट्र, समाज,
परिवार, इष्ट-मित्रों,
स्नेहीजनों की समस्या
निवारण हेतु भी
हम प्रार्थना करते
हैं । प्रार्थना
करते समय यह
हमें ध्यान रखना
चाहिये कि इसमें
हमारे व्यक्तिगत अथवा
सामूहिक कुत्सित स्वार्थ न
छिपे हों ।
प्रार्थना में हमें
निस्वार्थ भावना रखनी चाहिये
।
प्रार्थना हमें उससे
करनी चाहिये जिसकी
सामथ्र्य के बारे
में हम पूर्णरूपेण
सुनिश्चित हो कि
जो प्रार्थना हम
कर रहे हैं,
यदि हममें पात्रता
है, तो वह
हमारी प्रार्थना को
सार्थक कर पायेगा
। सामान्यतः हमें
प्रार्थना अपने इष्ट
से या गुरु
से जो नर-रूप में
हरि ही है,
से करना चाहिये
। वही सच्ची
सामथ्र्य रखते हैं
। उत्कृष्ट प्रार्थना
तो यह है
कि हम पूर्णरूपेण
अपने इष्ट या
गुरु के प्रति
समर्पित होकर यह
कहें ”हम न
अपना भला समझते
हैं और न
बुरा, अतः हे
परमात्मा जिसमें हमारा भला
हो, वही करो
। "जेहि विधि
होय नाथ हित
मोरा, करहु सो
वेग दास में
तोरा" हे प्रभु
! आप अपनी इच्छा
पूरी करो ।
आपकी इच्छा में
ही मेरी इच्छा
हो सकाम प्रार्थनायें
भी सुनी जाती
हैं, लेकिन ऐसी
प्रार्थना व्यक्तिगत द्वेष व
कुत्सित स्वार्थों से ऊपर
होनी चाहिये ।
प्रार्थना केवल तोते
के तरह रटी-रटाई बात
बोलना नहीं है
। प्रार्थना में
इष्ट के प्रति
प्रेम, श्रद्धा, व समर्पण
का भाव होना
चाहिए ।
प्रार्थना
किसी भी समय
की जा सकती
है । आप
प्रभु के हैं
और प्रभु हमारे
हैं बस हमारे
अंदर यही भाव
प्रबल होना चाहिये
। यह भाव
जितना अधिक प्रबल
होगा उतनी ही
हमारी प्रार्थना सार्थक
होगी । केवल
प्रार्थना निर्वाध हो सके
इसलिए धर्म मनीषियों
ने प्रार्थना का
समय निर्धारित किया
है । ब्रह्ममुहूर्त
का समय इसके
लिये सर्वोत्कृष्ट समय
माना गया है
। ब्रह्मवेला में
सर्वत्र शांति, दिव्य चेतना
समायी रहती है
मंद-मंद सुगन्धित
वायु सर्वत्र व्याप्त
होती है ।
वातावरण कोलाहल रहित, शांत,
नीरव तथा स्थिर
होता है ।
चारों ओर दिव्यता
और पवित्रता छायी
रहती है ।
देव शक्तियाँ जाग्रत
व सक्रिय रहती
हैं । इसलिये
ऐसा वातावरण प्रार्थना
के लिये सबसे
अनुकूल माना गया
है क्योंकि इस
समय बाधक तत्व
प्रार्थना को प्रभावित
करने में असमर्थ
होते हैं ।
वैसे प्रार्थना किसी
भी समय की
जा सकती है
। प्रार्थना को
दैनिक जीवन में
स्थान मिलना चाहिये
। परमात्मा से
आत्मा का जुड़ना
एक सतत् प्रक्रिया
है । यह
क्रिया हमारी हर सांस
में, हर पल
में हो यह
आवश्यक है ।
प्रार्थना के माध्यम
से व्यक्ति का
इष्ट से जुड़ना
- इसे पूर्णता प्रदान
करता है ।
अतः प्रार्थना में
लम्बा अन्तराल, अनियमितता,
निरंतरता का टूटना
उचित नहीं है
। यह जीव
का ईश्वर से
जुड़ने का सतत्
क्रम है ।
प्रार्थना का मतलब
जो चाहो मांगना
नहीं है ।
वास्तव में यह
बात विचार करने
योग्य है कि
प्रार्थना में जो
हम अपने इष्ट
से माँगते हैं
वह पाते क्यों
नहीं ? इसका एक
ही उत्तर है
कि हम प्रार्थना
में वह माँगते
हैं जो हमें
नहीं माँगना चाहिये
। प्रायः भगवान
से लोग, धन-सम्पदा, स्त्री, पुत्र,
जमीन, मकान, दुकान,
नौकरी, पद, प्रतिष्ठा
आदि भौतिक उपलब्धियाँे
प्राप्त करने के
लिये प्रार्थना करते
हैं । भगवान
ने अपने पुत्र
को इसकी सामथ्र्य
उसे शरीर, बल,
बुद्धि, विवेक, साहस, त्याग
इत्यादि के गुणों
के रूप में
दी है और
भगवान अपने पुत्र
से यह उम्मीद
करता है कि
उसका पुत्र अपने
पुरूषार्थ से इनकी
पूर्ति अपनी क्षमता
अनुसार कर लेगा
। लेकिन मनुष्य
ईश्वर के दिये
हुये वरदान को
भूल कर सिर्फ
अपने स्वार्थ के
लिये ही प्रार्थना
करता है इसीलिये
उसकी प्रार्थना स्वीकार
नहीं होती ।
ईश्वर ईष्र्या-द्वेष,
धनलोलुपता, व्यसन, अहंकार, रोग
आदि विकारों को
बढ़ाने वाली प्रार्थना
कैसे सुन सकता
है ? भगवान भी
सच्चे हृदय वालों
की ही प्रार्थना
सुनता है ।
उसे चापलूसी पसन्द
नहीं है ।
हमेशा सद्प्रवृत्तियों, सद्गुणों
एवं इनके सार्थक
सदुपयोग के लिये
ईश्वर से प्रार्थना
करनी चाहिये ।
प्रार्थना में ईश्वर
रोने, गिड़गिड़ाने, चापलूसी,
भिक्षुकवृत्ति धारण करने
से कृपालु नहीं
होता । ईश्वर
ने अपने प्रिय
पुत्र मनुष्य को
सभी सामथ्र्य, शक्तियाँ
व गुण अपने
वरदान के स्वरूप
दिये हैं ।
जब मनुष्य इसके
बावजूद भी पुरुषार्थ
हीनता का परिचय
देते हुए ईश्वर
से कुत्सित स्वार्थ
सिद्ध करने के
प्रयोजन से कुछ
मांगता है तो
ईश्वर यह समझता
है, क्या मनुष्य
को दी गयी
सारी शक्तियां व्यर्थ
गयीं ? इसलिये प्रार्थना में
हमारा हमेशा यह
भाव रहना चाहिये
कि हम ईश्वर
के अमृत पुत्र
हैं । वह
हमंे इस लायक
बनाये कि उसके
सच्चे भक्त एवं
पुत्र कहलाने का
गौरव प्राप्त कर
सकें । परमेश्वर
हमें वह शक्ति
प्रदान कर दे
जिसके आधार पर
हम माया, प्रलोभन
से मुक्त होकर
विवेक सम्मत कर्तव्य
पथ पर साहस
पूर्वक चल सकें
। परमेश्वर हमें
समस्त बुराईयों से
बचाये तथा सब
के प्रति कल्याणकारी
विचार हमारे मन
में उत्पन्न करें
। हम ईश्वर
के अमृत पुत्र
हैं, हम ईश्वर
से मैत्रेयी की
तरह मांगे ।
"असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्माऽमृतं
गमय"
अर्थात् हे ईश्वर
मुझे असत्य से
सत्य की ओर,
अंधकार से प्रकाश
की ओर और
मृत्यु से अमरत्व
की ओर ले
चलो ।